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Shree Jain Shwetamber Nakoda Parshwanath Tirth

राजस्थान के अरावली पहाड़ियों की आडावल पर्वत श्रृंखला की गोद में रेगिस्तानी रेतीले टीबो की ओट में प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों वाला श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ बसा हुआ  हैं। यह जगत विख्यात जैन तीर्थ पश्चिमी राजस्थान के सीमावर्ती रेगिस्तानी बाड़मेर जिले बालोतरा उपखण्ड में वस्त्रों पर रंगाई-छपाई के लिए विख्यात बालोतरा से दस किलोमीटर एवं ऐतिहासिक औद्योगिक बस्ती जसोल से पांच किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर पहाड़ियों की श्रृंखला की गोद में विद्यमान हैं। श्री नाकोड़ा जैन तीर्थ में पहुंचने के लिये जोधपुर-बाड़मेर के बीच चलने वाली बड़ी रेल लाईन पर आये बालोतरा जंक्शन रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। यहां से बस एवं सड़क यातायात के विभिन्न साधनों से बालोतरा से जसोल होते हुए पक्के सड़क मार्ग से भारत विख्यात जैन तीर्थ नाकोड़ा आसानी से पहुुंचा जा सकता हैं। बालोतरा-जसोल एवं आसपास के स्थानों से श्री नाकोड़ा के लिए आसानी से हर समय सड़क यातायात के साधन उपलब्ध रहते हैं। आवागमन की सुविधा के अतिरिक्त देश व प्रदेश के कई स्थानों से नाकोड़ा के लिए बस यातायात की सुविधा भी है और वैसे निजी वाहनों से नाकोड़ा जैन तीर्थ की यात्रा पर आना अधिक सुगम हो जाने से इस तीर्थ स्थल पर यात्रियों का जमघट लगा रहता हैं।

                       

श्री नाकोड़ा जैन धर्मावलम्बियों का अति प्राचीन तीर्थ स्थल है। जनश्रुतियों, दंत कथाओं एवं लोक आख्यानों के आधार पर बताया जाता है कि मालव जैन शासक ने वीरमपुर एवं नाकोर नगर बसाया था। ये दोनों स्थान वर्तमान में बाड़मेर जिले के प्राचीन महेवा राज्य के स्थान रहे है। वीरमपुर बालोतरा के समीप वर्तमान श्री नाकोड़ा के नाम से इतिहास प्रसिद्ध स्थल रहा  है। वहां नाकोर नगर सिणधरी के समीप नाकोड़ा गांव से परिचायक है।

                            

वीरमपुर (नाकोड़ा) के तत्कालिन शासक वीरमदत्त ने ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्व आठवें जैन तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभजी का मंदिर बनाया था, जिसकी प्रतिष्ठा श्री स्थुलिभद्रजी द्वारा सम्पन्न करवाई गई थी। उसका जीर्णोद्धार विक्रम पूर्व 189 में सम्राट सम्प्रति ने आषाढ़ सुदि 9 को इसकी प्रतिष्ठा आर्य श्री सुहास्तिसूरिजी द्वारा सम्पन्न करवाई। इसके पश्चात इस मंदिर का वि.सं. 35 में उज्जैन शासक वीर विक्रमादित्य ने जिर्णोद्धार करवाकर आचार्य श्री सिद्धसेनजी दिवाकर के हाथों मिगसर सुदि 11, वि.सं. 62 चैत्र सुदि 15 को भक्तामर रचियता आचार्य श्री मानतुंगसूरिजी ने जिर्णोद्धार के बाद वि.सं. 415 ज्येष्ठ  सुदि 10 बुधवार को आचार्य श्री देवसूरिजी ने भी जिर्णोद्धार के बाद एवं वि.सं. 813 मिगसर सुदि 13 को ग्वालियर महाराजा जयसेन ने जिर्णोद्धार करवाकर आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी से इस मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।

              

 ईसा से तीसरी  शताब्दी पूर्व वाले वीरमपुर के श्री चन्द्रप्रभजी के मंदिर के बाद वि.सं. 909 में इस मंदिर के जीर्णौद्धार होने के पश्चात् यहां मूलनायक के रूप में जैन धर्मावलिम्बयों के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा रही जो वि.सं. 1223 में जीर्णोद्धार होने के बाद तक रही। महेवा पर वि.सं. 1280 में बादशाह आलमशाह ने आक्रमण कर दिया तब महेवा राज्य का उपनगर वीरमपुर बुरी तरह से  प्रभाावित होकर उजड़ गया। उस समय यहां के जैन मंदिर की सभी प्रतिमाओं को नाकोर नगर (सिणधरी) के पास नाकोड़़ा गांव के कालीद्रह-नागद्रह (तालाब) में छिपा दिया।

                  

वि.सं. 1313 में राव वीरम ने वीरमपुर को पुनः बसाया। इसके  बाद नाकोर नगर (नाकोड़ा गांव) से श्यामवर्णी श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा नागद्रह तालाब से मिली, जिसे वि.सं. 1429 में वीरमपुर के प्राचीन पूर्व वाले श्री चन्द्रप्रभजी, श्री महावीर स्वामी वाले मंदिर में मूलनायक के रूप में द्वितीय वैषाख वदी 10 को आचार्य श्री जिनोदयसूरिजी ने प्रतिष्ठा की। तब से वीरमपुर का यह मंदिर नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से परिचायक बन गया। वि.सं. 1443 वैषाख षुक्ल 13 को मुगल बादशाह वाबीसी ने आक्रमण किया और महेवा का वीरमपुर (नाकोड़ा) पुनः उजड़ गया। तब भी यहां केे जैन मंदिर की मूर्तियों को सिणधरी क्षेत्र के नाकोर नगर (नाकोड़ा गांव) के कालीद्रह-नागद्रह तालाब में सुरक्षा के लिए छिपाया गया। वि.सं. 1511 में रावल वीदा ने वीरमपुर को पुनः आबाद किया। तब  वि.सं. 1512 में आचार्यश्री कीर्तिरत्नसूरिजी ने स्वप्न के आधाार पर नाकोड़ा गांव के तालाब से मूर्ति प्राप्त कर यहां प्रतिष्ठित की। इसके बाद श्राविका लाछी बाई ने श्री आदिनाथ भगवान का एवं मालाशाह संखलेचा ने अपनी माता की इच्छा से श्री शांतिनाथ भगवान का मंदिर बनाकर क्रमशः आचार्य श्री हेेमविमलसूरिजी एवं आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी  से प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई।

                 

वीरमपुर का श्री पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से अपनी धार्मिक पहचान तब से बनाए हुए आज भी जनप्रिय बना हुआ है। लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्थ एवं अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में यहां के शासक पुत्र नगर सेठ संखलेचा नानक की लम्बे बालों वाली चोेटी काटकर अपने घोड़े पर भिनभिनाती मक्ख्यिों को उड़ाने के लिये झवरी बनाने के निर्णय से भयभीत होकर नाकोड़ा से जैसलमेर तीर्थ यात्रा का बहाना बनाकर नाकोड़ा छोड़कर हमेशा के लिये चले गये। इसके बाद उजड़ा नाकोड़ा बाद में जनबस्ती के रूप में आज दिन तक वापिस नहीं बसा।

             

 सत्रहवीं शताब्दी में उजड़ने के बाद वि.सं. 1960 में जैन साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी ने बड़ी लगन, निष्ठा, परिश्रम एवं प्रयास के बाद इसका जिर्णोद्धार करवाकर इसकी वि.सं. 1991 माघ शुक्ला 13 को श्री हिम्मतविजयजी (आचार्य श्री मद् विजयहिमाचलसूरीश्वरजी) द्वारा प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई गई। इस प्रतिष्ठा के बाद नाकोड़ा तीर्थ उत्तरोत्तर प्रगति एवं विकास के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो रहा हैं। इस प्रतिष्ठा के बाद वि.सं. 2000 में बाड़मेर के यति श्री नेमिचन्द्रजी ने दादा श्री जिनदत्तसूरि दादाबाड़ी, प्रन्यास श्री कल्याणविजयजी ने  वि.सं. 2005 में श्री आदिनाथ भगवान मंदिर में बने चौमुखी मंदिर की आचार्य श्री जिनरत्नसूरिजी ने वि.सं. 2008 में दादा श्री कीर्तिरत्नसूरि दादाबाड़ी की आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरीश्वरजी  ने वि.सं. 2016  में विभिन्न जैन प्रतिमाओं की, आचार्यश्रीमद्विजय हिमाचलसूरीश्वरजी ने वि.सं. 2029 में पुनः नाकोड़ा के विभिन्न जैन प्रतिमाओं की,आचार्य श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी ने वि.सं. 2046 में सिद्धचक्र मंदिर की आचार्य श्री अरिहंत सिद्ध  सूरीश्वरजी ने वि.सं. 2055 में श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ, ज्ञानशाला चतुर्मुख मंदिर की श्री रत्नाकर विजयजी ने वि.सं. 2055 में श्री लक्ष्मीसूरि गुरू मंदिर की एवं  वि.सं.  2062 में श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी ने ज्ञानशाला के जैन आराधना मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। तीर्थ क्षेत्र में वि.सं. 1500 से लेकर 2062 तक होने वाली विभिन्न प्रतिष्ठाओं में प्रतिष्ठित की कई प्रतिमाएं विद्यमान हैं। जिन पर इन अवधि के कई शिलालेख उत्कीर्ण किये हुए हैं।

 

इन प्रतिष्ठाओं के आयोजन के साथ जैन तीर्थ धार्मिक दृष्टि से दिनों दिन प्रगति की ऊचाईयों को छूने लगा है। वहां तीर्थ में बने अन्य धार्मिक स्थलों में भगवान महावीर स्मृति भवन, मंगल कलश, निर्माणाधीन समवसरण मंदिर, भक्तामर पट्टशाला आदि ने इस जैन तीर्थ की धार्मिक ख्याति को जनप्रिय बना दिया है। नाकोड़ा के अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के चमत्कारों ने तो इस  तीर्थ की महिमा में चार चाँद जड़ दिये है। तीर्थ अन्य कई धार्मिक स्थलों को अपनी गोद में  लिये जन-जन में धार्मिक आस्था, विश्वास एवं श्रद्धा बनाए हुए है। तीर्थ जैन मंदिरों के जीर्णोद्धार, मानव सेवा, जीवदया, चिकित्सा, शिक्षा, सधर्मी सेवा, जैन साधु-साध्वी वै्यावच्य, साहित्य प्रकाशन, ज्ञानशाला संचालन, गौशाला संचालन आदि कई प्रकार की मानवोपयोगी एवं धार्मिक गतिविधियों का संचालन कर अपनी अनोखी कीर्ति बनाए हुए है। भगवान श्री पार्श्वनाथजी के जन्मोत्सव पर प्रतिवर्ष पोष वदी दशमी को आयोजित होने वाले त्रिदिवसीय मेले में हजारों श्रद्धालु लोग सम्मिलित होते हैं। यात्रियों, दर्शनार्थियों की सुविधा हेतु भोजनशाला, आधुनिक सुविधायुक्त आवासीय व्यवस्था, बिजली, पानी, टेलिफोन, सुरक्षा, यातायात सुविधा आदि का उचित प्रबंध किया हुआ है। सम्पूर्ण तीर्थ की व्यवस्था हेतु श्री जैन श्वेतांबर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्टमण्डल गठित है।

जनश्रुतियों के अनुसार जैन तीर्थ नाकोड़ा का अस्तित्व ईसा की तीसरी शताब्दी से पूर्व वीरमपुर नगर के रूप में रहा है। वीरमपुर नगर की स्थापना मालव जैन राजा के पुत्र वीरमदत्त ने की थी और इनके भाई नाकोर सेन ने नाकोर नगर (नाकोड़ा गाँव) की स्थापना की। तब से लेकर वीरमपुर नगर में वीरमदत्त द्दारा बनाया आठवे जैन तीर्थन्कर श्री चन्द्रप्रभ जी का मंदिर कई बार जीर्णोद्दार होने के बाद प्रतिष्ठा होने पर अस्तित्व में वि.सं. 909 से पूर्व तक रहा। जब वि.सं. 909 में मूलनायक रूप से चौबीसवें जैन तीर्थन्कर श्री महावीर स्वामी की मूर्ति यहाँ स्थापित होने पर इस तीर्थ के मूलनायक श्री महावीर स्वामी रहे। वि.सं. 1223 तक जीर्णोद्दार होने के बाद तक रहे।
वि.सं. 1280 में जब मुगल बादशाह आलमशाह ने इस तीर्थ क्षेत्र पर आक्रमण किया तब यह तीर्थ उजड़ गया और यहाँ की जैन प्रतिमाओं को नाकोरसेन के बसाए नाकोर नगर (वर्तमान सिणधरी के पास आए नाकोड़ा गाँव) के सुरक्षित कालीद्रह (नागद्रह) तालाब में छिपा दिया। वि.सं. 1429  में इस तालाब से श्यावर्णी श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा मिली और वीरमपुर (नाकोड़ा) मंदिर में प्रतिष्ठित करने पर यह श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथजी के नाम से तीर्थ पुनः आबाद हो गया। लेकिन वि.सं. 1443 वैशाख शुक्ल 13 को मुगल बादशाह बाबाशाह (बाबीजान) के आक्रमण के कारण यह तीर्थ फिर उजड़ गया।

 


वि.सं. 1511 में रावल वीदा द्दारा पुनः वीरमपुर को बसाया गया। उजड़ा वीरमपुर वापिस आबाद होने पर अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के स्वप्न संकेत से पुनः श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा कालीद्रह (नागद्रह) तालाब से प्राप्त हुई और आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरिजी ने वि.सं. 1512 में वीरमपुर में इसकी पुनः प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद यह तीर्थ पुनः प्रकाश में आया। जो सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्थ एवं अठाहरवी शताब्दी के आरम्भ में यहाँ के नगर सेठ नानगजी संखवाल (संखलेचा) के सिर के लम्बे बालो की चोटी का शासकीय राजकुमार द्दारा अपने घोड़े पर बैठने वाली मक्खियों को उडाने के लिए झंवरी बनाने की घटना ने इस तीर्थ को उजाड़ दिया। नानग सेठ यहाँ से 2700 से अधिक जैन धर्मावलम्बियों के परिवार के साथ तीर्थ यात्रा का बहाना बनाकर जैसलमेर आदि क्षेत्रों में बस गए । वीरमपुर (नाकोड़ा पार्श्वनाथ) पुनः उजड़ गया जो अब तक विकसित होने के बाद भी आबादी के रूप में आबाद नहीं हुआ।
सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्थ से लेकर बीसवीं शताब्दी के मध्यान्त तक यह नाकोड़ा तीर्थ (वीरमपुर) प्राकृतिक थपेड़ों को सहता हुआ जीर्ण-शीर्ण स्थिति में आ गया। प्रथम बार नाकोड़ा अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के स्वप्न संकेत के बाद वि.सं. 1958 में जैन साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी यहाँ पधारी और वि.सं. 1960 में इस तीर्थ का जीर्णोद्दार करवाना आरम्भ कर दिया। जीर्णोद्दार होने के बाद वि.सं. 1991 माघ शुक्ल 13 को पन्यास श्री हिम्मतविजयजी (आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरिजी) से इसकी प्रतिष्ठा करवाने के बाद से लेकर अब तक यह तीर्थ दिनों दिन विकास एवं विस्तार की ऊंचाईयों को छू रहा है। अब इस तीर्थ की यात्रा पर प्रतिवर्ष हजारों श्रद्दालू भक्त आते रहने के कारण तीर्थ की आय में बढोतरी भी होने से तीर्थ विकास के नए - नए आयाम खड़े कर उत्थान की ओर अग्रसर हो रहा है।

 

    जैन तीर्थ नाकोड़ा वर्तमान में बाड़मेर जिले की पंचायत समिति बालोतरा की ग्राम पंचायत मेवानगर के क्षेत्र में विद्यमान है। तीर्थ से मेवानगर मात्र दो किलोमीटर उत्तर की तरफ बसा हुआ है। मेवानगर गांववासियों का जैन तीर्थ नाकोड़ा से प्राचीन महेवा - वीरमपुर नामकरण के साथ सम्बंध रहा है। जब पन्यास श्री हिम्मतविजयजी (आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरीष्वरजी) ने वि.सं. 1991 में नाकोडा तीर्थ के प्रवर्तिनी साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी द्वारा जीर्णोद्वार करवाने के बाद प्रतिश्ठा करवाई तब उस समय के कई षिलालेखों में मेवानगर नाकोड़ा के नाम का उल्लेख किया हैै। नाकोड़ा जैन तीर्थ की तरफ से मेवानगर गांव के विकास में सदैव सराहनीय सहयोग रहा है। इस गांव के योग्य एवं कार्यकुषल लोगो को तीर्थ के विभिन्न क्षेत्रो में काम करने के लिये रखकर रोजगार दिया जाता रहा है। यह क्रम करीबन एक सौ वर्शो से अर्थात् साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी द्वारा तीर्थ जीर्णोद्वार के समय से चलता आ रहा है। इससे पहले ता इस गांव का ऐतिहासिक सम्बंध नाकोड़ा से रहा है। वर्तमान में तीर्थ की तरफ से मेवानगर में ‘श्री नाकोड़ा भैरव राजकीय उच्च प्राथमिक विधालय’ भवन का प्याऊ निर्माण करवाया है। यहां के विधार्थियो के राश्ट्रीय पर्वो, खेलकूद प्रतियोगिता, वार्शिक उत्सव आदि पर पुरस्कार भी दिया जाता है। यहां के ग्रामीणों की चिकित्सा हेतु तीर्थ की तरफ से एलोपैथी, आयुर्वेदिक एवं होम्योपैथिक की निःषुल्क व्यवस्था भी है। प्राकृतिक विपदा अकाल आदि में मेवानगरवासियो को हर सम्भव तीर्थ द्वारा सहायता दी जाती है। मेवानगर के षहीद भंवरसिह नाकोड़ा पार्ष्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट मण्डल मेवानगर (नाकोड़ा) एवं मेवानगर के ग्रामीण के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बंध रहे इसके लिये दोनो ओर से सराहनीय प्रयास रहे है। तीर्थ मेवानगर के विकास में सदैव सकारात्मक सोच एवं सहयोग से कार्य करता रहा है।

    नाकोड़ा तीर्थ का वि.सं. 1960 मंे प्रवर्तिनी साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी ने जीर्णोद्वार करवाने का कार्य आरम्भ किया। जीर्णोद्वार के कार्य के साथ तीर्थ की महिमा बढाने एवं जैन धर्मावलम्बियों का तीर्थ की तरफ रूझान बढाने हेतु जोधपुर के यतिश्री जवाहरमलजी ने वि.सं. 1965 में श्री पार्ष्वनाथजी के जन्मकल्याण पोश वदी दषमी को मेले का आयोजन साध्वीश्री सुन्दरश्रीजी की सलाह एवं बालोतरा के श्रीपूज्य श्री जिन फतेन्द्रसूरिजी के सहयोग से आरम्भ किया। इस मेले के आयोजन के साथ तीर्थ की व्यवस्था को व्यवस्थित करने की बात सामने आई।
    साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी ने जीर्णोद्वार के साथ प्रारम्भ में वि.सं. 1961 में जोधपुर के श्री सरदारमल जी को वैतनिक व्यवस्था पर रखकर कार्य आरम्भ किया। इन्होने वि.सं. 1984 तक कार्य किया। इस बीच वि.सं. 1982 में तखतगढ के श्री भीमाजी देवाजी ने अवैतनिक मुनिम एवं ट्रस्टी के रूप में वि.सं. 2011 तक तीर्थ की व्यवस्था सम्भाली। वि.सं. 1965 में तीर्थ पर पोश वदी दसमी मेले की व्यवस्था के लिये साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी ने बालोतरा के श्री पूज्य श्री फतेन्द्रसूरिजी के सहयोग से स्थानीय समाज के आगेवान व्यक्तियों को तीर्थ की व्यवस्था सौंपी। विधान का स्वरूप बना। जो अब तक विधान में संषोधित परिवर्तन, परिवर्धन होने के साथ श्री जैन ष्वेताम्बर नाकोड़ा पार्ष्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट मण्डल, मेवानगर (नाकोड़ा) के नाम से लगातार कार्यरत है। यही ट्रस्ट मण्डल तीर्थ की समुचित व्यवस्था करता रहता है। तीर्थ के ट्रस्ट मण्डल के सहयोग हेतु विभिन्न क्षेत्रों से सलाहकार लिये जाते है जो अपनी सेवाएं ट्रस्ट मण्डल को देते रहते है। वर्तमान ट्रस्ट मण्डल का कार्यकाल तीन वर्श का है। उसके बाद विधान में निर्धारित क्षेत्रों से ट्रस्टियो का चयन - चुनाव होता है।
 

WORDS OF WISDOM

किदवंतियों के आधार पर श्री जैन श्वैताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ की प्राचीनता का उल्लेख महाभारत काल यानि भगवान श्री नेमीनाथ जी के समयकाल से जुड़ता है, किन्तु आधारभूत ऐतिहासिक प्रमाण से इसकी प्राचीनता वि. सं. 200-300 वर्ष पूर्व यानि 2200-2300 वर्ष पूर्व की मानी जा सकती है । श्री जैन श्वैताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ राजस्थान के उन प्राचीन जैन तीर्थों जो 2000 वर्ष से भी अधिक समय से इस क्षेत्र की खेड़पटन एवं महेवानगर की ऐतिहासिक समृद्धि एवं सांस्कृतिक धरोहर की श्रेष्ठता के प्रतीक है । महेवानगर ही पूर्व में वीरमपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध था । वीरमसेन ने वीरमपुर तथा नाकोरसेन ने नाकोडा नगर बसाया था । आज भी बालोतरा- सीणधरी हाईवे पर नाकोडा ग्राम लूनी नदी के तट पर स्तिथ है, जिसके पास से ही इस तीर्थ के मूलनायक भगवान श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा प्राप्त हुई,जो यंहा प्रतिष्ठित की गई और तब से यह तीर्थ नकोडाजी के नाम से विश्व विख्यात है। मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा तीर्थ के संस्थापक आचार्य श्री जिन कीर्तिरत्न्सूरिजी द्वारा वि. स. 1502 में करवाई गई थी। यंहा की अन्य प्रतिमाओं में से कुछ सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति राजा के काल की है व कुछ पर वि.स. 1090 व 1205 का उल्लेख हैं। ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है कि सवंत् 1500 के आस-पास वीरमपुर मे 50 हजार की आबादी थी और ओसवाल जैन समाज के यंहा पर 2700 परिवार रहते थे। व्यापार एवं व्यवसाय की दृष्टि से वीरमपुर नगर (वर्तमान मे नाकोडा तीर्थ) इस क्षैत्र का प्रमुख केन्द्र रहा था।